Travelogue: अनूठी है राधाजी की ननिहाल ‘मुखराई’, पत्थर से गूंजते हैं सुर, चरकुला नृत्य बेमिसाल
हाइलाइट्स
राधाजी की नानी मुखरा देवी का गांव है मुखराई.
मुखराई में रखी बजनी शिला पर पत्थर से चोट करने पर कई अलग-अलग सुर गूंजते हैं.
मुखराई का लोकनृत्य चरकुला देश-विदेश में लोकप्रिय है.
समूचे उत्तर भारत में ही नहीं बल्कि पूरे और दुनिया में ब्रजभूमि का विशेष महत्व है. यहां वृंदावन, मथुरा, गोवर्धन, नंदगांव और बरसाना में अपने बाकेबिहारी और लाडली राधा रानी के दर्शन के लिए हर महीने लाखों यात्री आते हैं. तीज-त्योहारों पर तो उमड़ी भक्तों की भीड़ की छटा से अलग ही मनोहारी दृश्य प्रकट होता है.
यूं तो ब्रजभूमि के कण-कण में राधा-कृष्ण का वास है. यहां जो भी भक्त आते हैं, ब्रज की रज को अपने मस्तक पर धारण करके आनंद और भक्ति की अनुभूति करते हैं. कहा भी गया है- “बृज की रज परम पवित्र बास जहां राधा प्यारी कौ.”
समूचा ब्रजमंडल मंदिरों की भूमि है. यहां का हर गांव, कस्बा और शहर खुद में विशेष पौराणिक और धार्मिक महत्व समेटे हुए हैं. आज हम आपको भ्रमण कराते हैं एक ऐसे ही गांव ‘मुखराई’ की. दरअसल, मुखराई गांव के आंचल में कई ऐतिहासिक और पौराणिक कथाएं समाई हुई हैं. मुखराई गांव राधा रानी की ननिहाल है. इस गांव का नाम राधाजी की माता कीर्ति देवी की मां मुखरा देवी के नाम पर पड़ा है.
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मुखराई गांव गोवर्धन और राधाकुण्ड से लगभग जुड़ा हुआ है. मुखराई से राधा-कृष्ण भजते हुए पैदल ही एक तरफ राधाकुण्ड और दूसरी तरफ गोवर्धन पहुंचा जा सकता है. गोवर्धन की परिक्रमा में जब राधाकुण्ड से आते हैं तो राधाकुण्ड तिराहे पर वृंदावन जाने वाले रास्ते पर मुश्किल से एक मील दूर यह मुखराई गांव है. अब तो गोवर्धन बाईपास बनने से मथुरा से बरसाना (वाया गोवर्धन) जाने वाले सभी वाहन मुखराई से होकर गुजरते हैं. वृंदावन से गोवर्धन आने वाले सभी यात्रियों को अपने वाहन मुखराई ग्राम के बाहर खड़े करके ई-रिक्शा से राधाकुण्ड और गोवर्धन जाना पड़ता है.
राधाजी की ननिहाल मुखराई
ब्रज संस्कृति का परिचायक मुखराई गांव राधाजी की नानी मुखरा देवी निवास स्थान है. इसी गांव से कीरत दुलारी (कीर्ति देवी) का विवाह वृषभानु जी से हुआ था. यानी राधाजी की मां कीर्ति देवी मुखराई से ब्याह कर बरसाना गई थीं. और बरसाना में कीर्ति देवी के गर्भ से ही राधाजी का प्राकट्य हुआ था.
मुखराई गांव में मुखरा देवी का प्रचीन मंदिर.
तरह-तरह के सुरों से गूंजती बजनी शिला
मुखराई में मुखरा देवी का बड़ा सुंदर मंदिर है. मंदिर में राधाजी, कीर्ति देवी और मुखरा देवी की बड़ी मनोहारी प्रतिमाएं हैं. मंदिर के साथ प्राचीन कुण्ड भी है. मुखरा देवी मंदिर से लगा हुआ गिर्राजजी का मंदिर है. इस मंदिर में बजनी शिला रखी हुई है. इस शिला पर किसी अन्य पत्थर से चोट करने पर अलग-अलग तरह की ध्वनि गूंजती है. बजनी शिला को लेकर कथा प्रचलित है कि मुखरा देवी इसी पत्थर से तरह-तरह की आवाज निकालकर बाल राधिका जी को खिलाती थीं. जब भी राधाजी अपनी मां के साथ ननिहाल आती थीं तो यह बजनी शिला उनका एक बजने वाला खिलौना हुआ करती थी.

मुखराई गांव के मंदिर में रखी बजनी शिला पर चोट करने से अलग-अलग आवाज निकलती हैं.
यह भी कहा जाता है कि जब राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे उस समय इस बजनी शिला को दिल्ली स्थित राष्ट्रीय संग्रहालय में प्रदर्शन के लिए लाया गया था.
चरकुला नृत्य
वैसे तो चरकुला नृत्य भारत ही नहीं विदेशों में अच्छी तरह से जाना-पहचाना जाता है. चरकुला नृत्य में महिलाएं रथ के पहिये की भांति लकड़ी के एक बड़े चक्र पर कलश और जलते हुए 108 दियों को अपने सिर पर रखकर नृत्य करती हैं. चरकुला नृत्य मूलतः मुखराई गांव का ही है.

मुखराई गांव का कुण्ड.
इसके बारे में भी कथा प्रचलित है कि जब मुखरा देवी ने अपनी पुत्री कीरत दुलारी के घर कन्य के जन्म का सामाचार सुना तो वह बहुत खुश हुई. प्रसन्नता की इस लहर में उन्होंने घर में रखे रथ के पहिये पर 108 दीप जलाए और उसे अपने सर पर धारण करके नाचने लगीं. बताया जाता है कि चरकुला नृत्य की परंपरा तभी से इस गांव में है.

50 किलोग्राम वजन के जलते दीपकों से सजे चक्र को धारण करके नृत्य करना चरकुला नृत्य कहलाता है.
हर वर्ष फाल्गुन मास में होली (रंग) के बाद चैत्रवदी दूज को चरकुला नृत्य का आयोजन किया जाता है. चूंकि चरकुला का कुल वजन सवा मन (50 किलोग्राम) होता है, इसलिए इस सिर पर धारण करने वाली महिलाओं को आयोजन से एक सप्ताह पहले इसका प्रशिक्षण दिया जाता है. नगाड़ों की थाप पर महिलाएं कई दिन चरकुला को धारण करके नृत्य का अभ्यास करती हैं.
इसके बाद दूज के दिन सुबह के समय होली खेलने के उपरांत सभी लोग नए रंग-बिरंगे आकर्षक पोशक धारण करके चरकुला के लिए निकलते हैं. मुखराई के मुख्य चौक में विशाल बरगद के पेड़ के नीचे चरकुला नृत्या का आयोजन किया जाता है.
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चरकुला को देखने के लिए बड़ी संख्या में देश-विदेश के लोग जुटते हैं. चरकुला धारण करने से पहले झंडी लेकर बृजावासियों की अलग-अलग टोलियां मोहन जी मंदिर में जाकर विशेष पूजा-अर्चना करती हैं. लोकगीत गाए जाते हैं.
मंदिर से आने वाले लट्टमार परंपरा का निर्वाह करते हुए महिलाएं और पुरुष अलग-अलग गुटों में बंट जाते हैं. महिलाएं हाथों में लाठी लेकर खड़ी होती हैं. उनके सामने गांव के पुरुष लोकगीत गाते हुए महिलाओं पर व्यंग्य बाण छोड़ते हैं. इस परंपरा को हुरंगा कहते हैं. इस व्यंग्य पर महिलाएं लाठी लेकर पुरुषों के पीछे दौड़ती हैं. पुरुषों की टोली में एक आदमी झंडी लेकर खड़ा रहता है. महिलाओं की कोशिश होती है कि पुरुषों को अपनी लाठियों से खदेड़ते हुए अपनी लाठी से उस झंडी को छू दे. झंडी पर पुरस्कार स्वरूप कुछ राशि बंधी होती है. जो भी महिला इस झंड़ी को अपनी लाठी से छू देती है, हुरंगा समाप्त हो जाता है.

चरकुला नृत्य से पहले हुरंगा का दृश्य.
इसके बाद चरकुला नृत्य शुरू होता है, जो देर रात तक चलता है. चरकुला के बाद रासलीला और लोकनृत्य आदि का भी आयोजन किया जाता है.
इस प्रकार आप ब्रज भ्रमण के दौरान मुखराई गांव घूमकर वहां की अनोखी परंपरा का भी अनुभव कर सकते हैं.
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FIRST PUBLISHED : January 24, 2023, 16:52 IST